राधा की मृत्यु के बाद क्यों तोड़ दी थी बांसुरी, जानें राधा-कृष्ण का ये अनोखा रहस्य


आज हम आपको भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े रहस्यों के बारे में बताने जा रहे हैं कि आखिर कान्हा को बांसुरी इतनी प्रिय क्यों है और किसने उन्हें यह बांसुरी दी थी। साथ ही जानिए कि आखिर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी क्यों तोड़ दी थी। कहा जाता है कि श्रीकृष्ण को केवल दो ही चीजें यानी बांसुरी और राधा ही सबसे ज्यादा प्रिय थीं। ये दोनों चीजें भी आपस में एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई थीं।
जब भी प्रेम की मिसाल दी जाती है तो राधा-कृष्ण के प्रेम की मिसाल सबसे पहले आती है। राधा-श्रीकृष्ण के प्रेम को जीवात्मा और परमात्मा का मिलन कहा जाता है। श्रीकृष्ण के जितने भी चित्र मिलते हैं, उनमें बांसुरी जरूर रहती है। बांसुरी श्रीकृष्ण के राधा के प्रति प्रेम का प्रतीक है। वैसे तो राधा से जुड़ीं कई अलग-अलग विवरण मौजूद हैं लेकिन एक प्रचलित कहानी हम आपको बता रहे हैं।
भगवान श्रीकृष्ण से राधा पहली बार तब अलग हुईं जब मामा कंस ने बलराम और कृष्ण को आमंत्रित किया। वृंदावन के लोग यह खबर सुनकर दुखी हो गए। मथुरा जाने से पहले श्रीकृष्ण राधा से मिले थे। राधा, कृष्ण के मन में चल रही हर गतिविधि को जानती थीं। राधा को अलविदा कह कृष्ण उनसे दूर चले गए। कृष्ण राधा से ये वादा करके गए थे कि वो वापस आएंगे, लेकिन कृष्ण राधा के पास वापस नहीं आए। उनकी शादी भी रुक्मिनी से हुई। रुक्मिनी ने भी श्रीकृष्ण को पाने के लिए बहुत जतन किए थे।
श्रीकृष्ण से विवाह के लिए वह अपने भाई रुकमी के खिलाफ चली गईं। राधा की तरह वह भी श्रीकृष्ण से प्यार करती थीं, रुक्मिनी ने श्रीकृष्ण को एक प्रेम पत्र भी भेजा था कि वह आकर उन्हें अपने साथ ले जाएं। इसके बाद ही कृष्ण रुक्मिनी के पास गए और उनसे शादी कर ली।
कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद से ही राधा का वर्णन बहुत कम हो गया। राधा और कृष्ण जब आखिरी बार मिले थे तो राधा ने कृष्ण से कहा था कि भले ही वो उनसे दूर जा रहे हैं, लेकिन मन से कृष्ण हमेशा उनके साथ ही रहेंगे। इसके बाद कृष्ण मथुरा गए और कंस और बाकी राक्षसों को मारने का अपना काम पूरा किया। इसके बाद प्रजा की रक्षा के लिए कृष्ण द्वारका चले गए और द्वारकाधीश के नाम से लोकप्रिय हुए।
जब कृष्ण वृंदावन से निकल गए तब राधा की जिंदगी ने अलग ही मोड़ ले लिया था। बताया जाता है कि राधा की शादी एक यादव से हो गई थी। राधा ने अपने दांपत्य जीवन की सारी रस्में निभाईं और बूढ़ी हुईं, लेकिन उनका मन तब भी कृष्ण के लिए समर्पित था। राधा ने पत्नी के तौर पर अपने सारे कर्तव्य पूरे किए, दूसरी तरफ श्रीकृष्ण ने अपने दैवीय कर्तव्य निभाए। सारे कर्तव्यों से मुक्त होने के बाद राधा आखिरी बार अपने प्रियतम कृष्ण से मिलने गईं। जब वह द्वारका पहुंचीं तो उन्होंने कृष्ण की रुक्मिनी और सत्यभामा से विवाह के बारे में सुना लेकिन वह दुखी नहीं हुईं।
जब कृष्ण ने राधा को देखा तो बहुत प्रसन्न हुए। दोनों संकेतों की भाषा में एक-दूसरे से काफी देर तक बातें करते रहे। राधा जी को कान्हा की नगरी द्वारिका में कोई नहीं पहचानता था। राधा के अनुरोध पर कृष्ण ने उन्हें महल में एक देविका के रूप में नियुक्त किया।
राधा दिन भर महल में रहती थीं और महल से जुड़े कार्य देखती थीं। मौका मिलते ही वह कृष्ण के दर्शन कर लेती थीं, लेकिन महल में राधा ने श्रीकृष्ण के साथ पहले की तरह का आध्यात्मिक जुड़ाव महसूस नहीं कर पा रही थीं इसलिए राधा ने महल से दूर जाना तय किया। उन्होंने सोचा कि वह दूर जाकर दोबारा श्रीकृष्ण के साथ गहरा आत्मीय संबंध स्थापित कर पाएंगी।
उन्हें नहीं पता था कि वह कहां जा रही हैं, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण जानते थे। धीरे-धीरे समय बीता और राधा बिलकुल अकेली और कमजोर हो गईं। उस वक्त उन्हें भगवान श्रीकृष्ण की आवश्यकता पड़ी। आखिरी समय में भगवान श्रीकृष्ण उनके सामने आ गए।
कृष्ण ने राधा से कहा कि वह उनसे कुछ मांगें, लेकिन राधा ने मना कर दिया। कृष्ण के दोबारा अनुरोध करने पर राधा ने कहा कि वह आखिरी बार उन्हें बांसुरी बजाते देखना चाहती हैं। श्रीकृष्ण ने बांसुरी ली और बेहद सुरीली धुन बजाने लगे। श्रीकृष्ण ने दिन-रात बांसुरी बजाई, जब तक राधा आध्यात्मिक रूप से कृष्ण में विलीन नहीं हो गईं। बांसुरी की धुन सुनते-सुनते राधा ने अपने शरीर का त्याग कर दिया।
हालांकि भगवान कृष्ण जानते थे कि उनका प्रेम अमर है। इसके बावजूद वे राधा की मृत्यु को बर्दाश्त नहीं कर सके। कृष्ण ने प्रेम के प्रतीकात्मक अंत के रूप में बांसुरी तोड़कर झाड़ी में फेंक दी। उसके बाद से श्री कृष्ण ने जीवन भर बांसुरी या कोई अन्य वादक यंत्र नहीं बजाया।
द्वापर युग में जब भगवान श्री कृष्ण ने धरती में जन्म लिया तब देवी-देवता वेश बदलकर समय-समय पर उनसे मिलने धरती पर आने लगे। तभी भगवान शिवजी भी अपने प्रिय भगवान से मिलने के लिए आए। परन्तु वह यह सोच कर कुछ क्षण के लिए रुके कि यदि वे श्री कृष्ण से मिलने जा रहे हैं तो उन्हें कुछ उपहार भी अपने साथ ले जाना चाहिए।
तभी महादेव शिव को याद आया कि उनके पास ऋषि दधीचि की महाशक्तिशाली हड्डी पड़ी है। ऋषि दधीचि वही महान ऋषि है जिन्होंने धर्म के लिए अपने शरीर को त्याग दिया था व अपनी शक्तिशाली शरीर की सभी हड्डियां दान कर दी थीं। उन हड्डियों की सहायता से विश्कर्मा ने तीन धनुष पिनाक, गाण्डीव, शारंग तथा इंद्र के लिए व्रज का निर्माण किया था।
महादेव शिवजी ने उस हड्डी को घिसकर एक सुन्दर एवं मनोहर बांसुरी का निर्माण किया। फिर जब शिवजी भगवान श्री कृष्ण से मिलने गोकुल पंहुचे तो उन्होंने श्री कृष्ण को भेट स्वरूप वह बंसी दी। उन्हें आशीर्वाद दिया तभी से भगवान श्री कृष्ण उस बांसुरी को अपने पास रखते हैं।

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